Thursday, February 11, 2010

फूल की चाह



चाह नहीं मै सुरबाला के गहनों में गुंथा जाऊ
चाह नहीं प्रेमी माला में बन्ध  प्यारी को ललचाऊ
चाह नहीं सम्राटोंके शव पर हे हारी डाला जाऊ
चाह नहीं देवोंके सर चढूं, भाग्य पर इतराऊ
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथपर देना तुम फ़ेंक 
मातृभूमिपर शीश चढाने जिसपथ जावे वीर अनेक

बचपन में पढ़ी हुई कविता, आज बहोत सालों बाद फिर पढने का अवसर आया. जब भी पढता हु, मन विचलित हो जाता है | किसी समय देश और समाज के लिए कुछ करने की इच्छा थी, आज शायद भाग-दौड़ में वो कही खो सी गयी है | क्या पता कभी फिर वापस मिले, या नहीं!

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