चाह नहीं मै सुरबाला के गहनों में गुंथा जाऊ
चाह नहीं प्रेमी माला में बन्ध प्यारी को ललचाऊ
चाह नहीं सम्राटोंके शव पर हे हारी डाला जाऊ
चाह नहीं देवोंके सर चढूं, भाग्य पर इतराऊ
मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथपर देना तुम फ़ेंक
मातृभूमिपर शीश चढाने जिसपथ जावे वीर अनेक
बचपन में पढ़ी हुई कविता, आज बहोत सालों बाद फिर पढने का अवसर आया. जब भी पढता हु, मन विचलित हो जाता है | किसी समय देश और समाज के लिए कुछ करने की इच्छा थी, आज शायद भाग-दौड़ में वो कही खो सी गयी है | क्या पता कभी फिर वापस मिले, या नहीं!
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